What are BJP's preparations for 'crossing 400 this time'?

2024 के आम चुनाव की सुगबुगाहट की शुरुआत से ही बीजेपी 400 सीटें जीतने के लक्ष्य के साथ मैदान में उतरी है. लेकिन अपने इस अतिमहत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करने के लिए जमीन पर पार्टी की तैयारियां किस हद तक मजबूत हैं

What are BJP's preparations for 'crossing 400 this time'?

नामुमकिन को मुमकिन बनाना. यही चुनौती नरेंद्र मोदी अपने लिए लगातार तय करते हैं और उसे हासिल करने में जुट जाते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने 543 सदस्यीय सदन में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 282 और उसकी अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को 336 सीटों की शानदार जीत दिलाई, जबकि 1980 में अपने गठन के बाद से भाजपा कभी 182 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई थी.

30 वर्षों में यह पहली बार था कि किसी पार्टी ने अपने दम पर साधारण बहुमत हासिल किया था. इसके पहले 1984 में राजीव गांधी की अगुआई में कांग्रेस को 414 सीटों की ऐतिहासिक जीत मिली थी. मोदी का जादू 2019 में दूसरी बार भी चला. भाजपा बढ़कर 303 सीटों और एनडीए 352 सीटों पर पहुंच गया. इस बार वे दो शिखर चोटियों पर ऐतिहासिक चढ़ाई का दावा ठोक रहे हैं. वह है लगातार तीसरी बार पार्टी को अपने दम पर बहुमत दिलाकर जवाहरलाल नेहरू की बराबरी करना. और असली एवरेस्ट शिखर 400 सीटें लाकर राजीव गांधी के रिकॉर्ड की बराबरी करना.

मोदी ने 17वीं लोकसभा के अंतिम सत्र से कुछ दिन पहले 5 फरवरी को अपने इरादे का ऐलान किया. उन्होंने बस इतना ही कहा कि 'अब की बार...' और उनकी पार्टी की भीड़ से 'चार सौ पार' का शोर गूंज उठा. यही नारा मोदी और भाजपा के चुनाव अभियान का मंत्र बन गया. लेकिन प्रधानमंत्री और उनके नेताओं की मुख्य टीम बखूबी जानती है कि उस इरादे को हकीकत में बदलना कितना मुश्किल है.

मसलन, 2019 में भाजपा का वोट शेयर 37.3 फीसद और एनडीए का 45 फीसद था, लेकिन यह 1984 में कांग्रेस को मिले 48 फीसद वोटों से तीन फीसद अंक कम था, जब उसे 400 से ज्यादा सीटें मिली थीं.

इसका मतलब यह है कि भाजपा को न सिर्फ अपनी झोली में करीब 70 सीटें जोड़नी होंगी, बल्कि यह भी आश्वस्त करना होगा कि 2019 में 49 सीटें जीतने वाले उसके एनडीए सहयोगी अपनी सीटें बरकरार रखें या उसमें सुधार करें. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से कांग्रेस के पक्ष में भारी सहानुभूति लहर पैदा हुई थी, उसके मद्देनजर तो मोदी को 400 के पार सीटों के लिए भारी तूफानी हवाएं बहाने की जरूरत होगी. भाजपा और एनडीए में उसके सहयोगी दल 400 सीटों की तलाश में इन पांच प्रमुख रणनीतियों से उम्मीद लगाए बैठे हैं. 

Guarding the BJP Stronghold

बकौल चुनाव विश्लेषक अमिताभ तिवारी भाजपा और एनडीए के मिशन 400 प्लस के लिए अपनाई जा सकने वाली रणनीति का कूट नाम प्रभु आर.ए.एम. (या हिंदी में प्रभु राम कहिए) गढ़ा है. यहां आर.ए.एम. से अर्थ है रिगेन यानी फिर जीतो, एटेन यानी बहाल रखो और एम यानी बरकरार रखो. तिवारी की गणना में एनडीए के लिए 'बरकरार रखो' सबसे अहम है, क्योंकि भाजपा को 2019 में जीती गई 303 सीटों पर 100 फीसद स्ट्राइक रेट रखना होगा, जबकि एनडीए में उसके सहयोगी दलों को पिछली बार मिली 49 सीटों में से कम से कम 30 सीटें जीतनी होंगी, अलबत्ता उनकी तादाद घट गई है.

भाजपा और उसके एनडीए सहयोगियों का भरोसा इससे बंधता है कि 2019 में हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र दिल्ली, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जैसे 13 राज्यों की कुल 327 में से 296 सीटें उसकी झोली में आ गिरी थीं. इन सीटों पर 90 फीसद का अभूतपूर्व स्ट्राइक रेट था.

फिर, भाजपा की 303 सीटों में 224 में उसे 50 फीसद से अधिक वोट मिले थे. इस बात से भी भाजपा को भारी शुरुआती बढ़त मिल रही है क्योंकि इन सीटों पर उसे हराने के लिए किसी भी पार्टी को 5 फीसद से अधिक वोटों का रुझान अपने पक्ष में करना होगा. विपक्ष के लिए यह आसान नहीं होगा क्योंकि 10 वर्षों की सत्ता के बावजूद मोदी की लोकप्रियता बरकरार है और सत्ता विरोधी लहर का असर न के बराबर है, जैसा कि फरवरी, 2024 में ताजा इंडिया टुडे देश का मिजाज सर्वेक्षण से जाहिर होता है.

भाजपा अपनी इस भारी बढ़त से वाकिफ है, फिर भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रही है. मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पिछले ढाई साल से अपनी रणनीतियों के जरिए अपना गढ़ बचाए रखने और अपने दबदबे के विस्तार में जुटे हैं. भाजपा के कार्यकर्ताओं को 'गांव चलो' और 'विकसित भारत' अभियानों के जरिए 17 लाख बूथों में भेजा गया, ताकि वोटरों को मोदी सरकार की समाज कल्याण योजनाओं और देश की आजादी के 100 साल पूरे होने पर 2047 तक महान भारत की भव्य योजना से वाकिफ कराया जा सके.

फरवरी में भाजपा की 18 महीने पुरानी पहल 'लोकसभा प्रवास' पूरी हुई. इसके तहत 45 केंद्रीय मंत्रियों को करीब 160 कमजोर सीटों का लगातार दौरा करके उन्हें मजबूत करने और भाजपा कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने का काम सौंपा गया था. इन सीटों में से पार्टी 2019 में 131 हार गई थी. बाकी मामूली अंतर से पार्टी या तब के सहयोगी जीत पाए थे. विकसित भारत संकल्प के तहत 2.6 लाख ग्राम पंचायतों तक पहुंचने का दावा है. इस यात्रा के दौरान 45 लाख से अधिक 'माई भारत' वॉलंटियर बनाने का भी दावा है. 

फिर, भाजपा ने तीन हिंदी भाषी राज्यों- राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के 2023 की सर्दियों में हुए विधानसभा चुनावों में जीत हासिल करने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया. वहां जीत के बाद मोदी ने बड़े पैमाने पर नेतृत्व में बदलाव किया और राज्य सरकारों की कमान नए चेहरों को सौंपी. लोकसभा की करीब 400 सीटों के लिए घोषित उम्मीदवारों में भी एक-चौथाई नए चेहरे हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां मौजूदा सांसदों के खिलाफ लोगों में नाराजगी है.

पार्टी ने अपने अभियान को मजबूती देने के लिए दिग्गजों को उतारा है. इनमें मध्य प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर, कर्नाटक में बासवराज बोम्मई, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र रावत और त्रिपुरा में बिप्लब देब शामिल हैं. भाजपा के एक शीर्ष नेता कहते हैं, "ये सभी हमारे टैलेंट हैं. पार्टी ने उनमें निवेश किया है, मोदी 3.0 में ताजगी के लिए अब केंद्र में उनकी जरूरत है."

राज्यसभा के रास्ते आने वाले केंद्रीय मंत्रियों को भी चुनाव में उतारा गया है. इनमें ज्योतिरादित्य सिंधिया (गुना, मध्य प्रदेश),भूपेंद्र यादव (अलवर, राजस्थान), धर्मेंद्र प्रधान (संबलपुर, ओडिशा), पीयूष गोयल (मुंबई उत्तर, महाराष्ट्र), मनसुख मांडविया (पोरबंदर, गुजरात), सर्बानंद सोनोवाल (डिब्रूगढ़, असम) और राजीव चंद्रशेखर (तिरुवनंतपुरम, केरल) वगैरह हैं. उधर, कर्नाटक में भाजपा पिछले चुनाव में राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से 26 जीत गई थी, लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस से बुरी तरह हार गई.

अब वह फिर से अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए राज्य में दो प्रभावी समुदाय, वोक्कालिगा और लिंगायत को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है. उसने वोक्कालिगा वोटों के लिए देवेगौड़ा की जनता दल-सेक्युलर (जेडीएस) के साथ गठबंधन किया है. लिंगायत वोटों के लिए उसने पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बेटे बी.वाई बिजयेंद्र को प्रदेश अध्यक्ष बनाया. सी-वोटर के संस्थापक चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख का कहना है कि भाजपा को आत्मविश्वास इससे मिलता है कि 2019 में कांग्रेस से सीधे मुकाबला वाली 194 सीटों में से उसने 185 सीटों पर जीत हासिल की. फरवरी में हमारे देश का मिजाज सर्वेक्षण में दिखाता है कि माहौल में बदलाव नहीं हुआ है. कांग्रेस अभी भी कमजोर प्रदर्शन कर रही है.

Merger and defection

भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती तब खड़ी हुई, जब विपक्षी दलों ने एकजुट होने का फैसला किया, खासकर बड़े उलटफेर की संभावना वाले महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में, जहां लोकसभा की क्रमश: 48 और 40 सीटें हैं. 2019 में भाजपा ने इन 88 सीटों में से 80 पर जीत दर्ज की थी. पार्टी के लिए 2024 में इन सीटों पर अपना कब्जा बरकरार रखना महत्वपूर्ण है. जैसा चुनाव विश्लेषक देशमुख कहते हैं, भाजपा ने अपने इसी उद्देश्य को हासिल करने के लिए 'ऑपरेशन विलय और पाला बदल' शुरू किया.

महाराष्ट्र में भाजपा उस समय अलग-थलग पड़ गई थी जब अक्टूबर 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद सहयोगी शिवसेना एनडीए से अलग हो गई और उसने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) और कांग्रेस के साथ मिलकर नया मजबूत विपक्षी गठबंधन महाराष्ट्र विकास अघाड़ी (एमवीए) बना लिया. अगर एमवीए को लोकसभा चुनाव लड़ने का मौका मिलता तो एनडीए के लिए 2019 के आम चुनाव की तरह 48 में से 41 सीटों पर जीत वाला प्रदर्शन दोहराना मुश्किल हो सकता था. तब राज्य में भाजपा का वोट शेयर 28 फीसद था. एमवीए का वोट शेयर 57 फीसद (शिवसेना 24, कांग्रेस 17 और राकांपा 16 फीसद) था.

भाजपा की तरफ से दो बड़े झटके मिलने से पहले एमवीए ने शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में करीब तीन वर्षों तक सरकार चलाई. जून 2022 में भाजपा ने उद्धव का दाहिना हाथ कहलाने वाले एकनाथ शिंदे को अपने पाले में कर लिया, जिससे शिवसेना दो-फाड़ हो गई. पार्टी ने शिंदे नीत शिवसेना गुट को समर्थन का फैसला किया और उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आसीन करा दिया.

उसके बाद, भाजपा जुलाई 2023 में राकांपा में फूट डालने में सफल रही. विधायक दल के नेता अजित पवार उसके खेमे में आ गए और उन्हें शिंदे सरकार में उप-मुख्यमंत्री बना दिया गया. वहीं, कांग्रेस का मनोबल गिराने के लिए भाजपा ने हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को राज्यसभा टिकट देकर पाला बदल करा लिया. उद्धव ठाकरे नीत शिवसेना को और गहरा झटका देने के इरादे से भाजपा उनके चचेरे भाई राज ठाकरे को साथ लाने की फिराक में है.

पार्टी उन्हें मुंबई दक्षिण सीट से चुनाव लड़ने की पेशकश कर सकती है. भाजपा फिलहाल महाराष्ट्र में सीट-बंटवारे को अंतिम रूप देने के करीब है, जिससे उसे राज्य की 31 सीटों (2019 की तुलना में पांच अधिक) पर चुनाव लड़ने का मौका मिल सकता है, जबकि शिंदे गुट को 13 और अजित पवार की राकांपा को चार सीटें मिल सकती हैं. हालांकि, चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा के दांव-पेच ने 'महाराष्ट्राची अस्मिता' (मराठा स्वाभिमान) को चोट पहुंचाई है, जिससे महाराष्ट्र में नतीजों को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है.

महाराष्ट्र का गढ़ सुरक्षित करने के बीच भाजपा बिहार में अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटी रही, जहां उसके लिए चुनौतियां काफी बढ़ गई थीं. 2019 में भाजपा ने एनडीए सहयोगियों, जनता दल यूनाइटेड (जद-यू) और लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के साथ मिलकर बिहार में 53 फीसद से अधिक वोटों के साथ 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी.

हालांकि, दो साल बाद अगस्त, 2022 में जद (यू) के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा से नाता तोड़ लिया और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के तेजस्वी यादव के साथ मिलकर सरकार बना ली. करीब एक साल बाद, नीतीश 27 विपक्षी दलों के गठबंधन के सूत्रधार भी बने, जिसे 'इंडिया' या 'इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल ऐंड इन्क्लूसिव एलायंस' नाम दिया गया. नीतीश ने राज्य में जाति गणना के अपने वादे को भी पूरा किया. उन्होंने उसके आधार पर आरक्षण भी बढ़ाया, जिससे विपक्ष को भाजपा के हिंदुत्व कार्ड की काट के लिए देशव्यापी जाति गणना कराने का भरोसा दिलाने का मौका मिला. 

हालांकि, हैरतनाक तख्तापलट के सहारे भाजपा जनवरी, 2024 में नीतीश से राजद का साथ छुड़ाकर फिर एनडीए में लाने में कामयाब हो गई. इससे न सिर्फ विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' को गहरा झटका लगा, बल्कि पिछड़े वर्गों के एकजुट होने का संभावित खतरा भी टल गया, जो हिंदू वोटों की गोलबंदी की उसकी कोशिश में बाधा साबित हो सकता था. भाजपा ने चिराग पासवान की अगुआई वाले लोजपा गुट की भी एनडीए में वापसी करा दी.

पार्टी के अब राज्य की 40 सीटों में से 17 पर चुनाव लड़ने की संभावना है, जो आंकड़ा 2019 के ही समान है. जद (यू) को 16, लोजपा के चिराग गुट को पांच और जद (यू) से अलग हुए दो दलों-जीतन राम मांझी नीत हम-एस (हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा-सेक्युलर) और उपेंद्र कुशवाहा नीत राष्ट्रीय लोक मोर्चा को एक-एक सीट मिल सकती है. हालांकि, यहां भाजपा को तेजस्वी की लोकप्रियता से सावधान रहने की जरूरत है, जिससे कुछ सीटों पर गणित गड़बड़ा सकता है.

यही नहीं, भाजपा राजनैतिक लाभ के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), आयकर विभाग और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जैसी केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाने वाले विपक्षी दलों के शासन वाले राज्यों को अस्थिर करने में भी पीछे नहीं है.

विपक्षी दलों के दो मुख्यमंत्री, झारखंड में हेमंत सोरेन (जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा) और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल केंद्रीय एजेंसियों के लगाए आरोपों के कारण जेल में हैं. भाजपा ने कांग्रेस के छह विधायकों का पाला बदलवाकर हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सुक्खू सरकार को संकट में ला दिया है. कांग्रेस ने भाजपा पर यह आरोप भी लगाया है कि आयकर विभाग ने उसके 11 खाते फ्रीज करा दिए हैं, जिससे वह चुनावी खर्च करने तक में अक्षम हो गई है.

Coromandel challenge

देश के पूर्व में कोरोमंडल तट लंबे समय से भाजपा के लिए अभेद्य गढ़ रहा है. यहां के चार मुख्य राज्यों पश्चिम बंगाल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में क्षेत्रीय दलों के क्षत्रपों का वर्चस्व है और भाजपा इसे तोड़ने में नाकाम रही है. इन राज्यों की कुल 127 सीटों में से भाजपा 2019 में सिर्फ 26 पर जीत हासिल कर पाई थी, जिनमें पश्चिम बंगाल की 40 में से 18 सीटें शामिल हैं, जहां पैठ बनाने की भाजपा की लगातार कोशिश रंग लाई.

वहां उसे पहली बार 41 फीसद वोट हासिल करने का मौका मिला, जो ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से महज दो फीसद कम है, जिसने 22 सीटें जीती थीं. हालांकि, टीएमसी ने 2021 के विधानसभा चुनाव में शानदार वापसी की और 48 फीसद वोट शेयर के साथ 292 सीटों में से 215 जीत गई, जबकि भाजपा को 77 सीटों और 38 फीसद वोट शेयर के साथ संतोष करना पड़ा.

इसमें कोई दो-राय नहीं कि भाजपा ने कांग्रेस और वाम दलों को पछाड़कर राज्य में प्रमुख विपक्षी पार्टी का दर्जा हासिल कर लिया है. इस बार सीट संख्या बेहतर करने की कोशिशों के तहत पार्टी ममता बनर्जी के नेतृत्व पर कड़े प्रहार कर रही है, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है और संदेशखाली में टीएमसी नेताओं के खिलाफ जमीन हड़पने और यौन शोषण के आरोपों का मुद्दा भुनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही.

पार्टी को इसके बलबूते टीएमसी के महिला वोट बैंक में सेंध लगाने की उम्मीद है. दरअसल भाजपा ने एक पीड़िता तथा व्हिसिलब्लोअर रेखा पात्रा को बसीरहाट से उम्मीदवार बनाया, जिसमें संदेशखाली भी आता है. केंद्र ने चुनाव आचार संहिता लागू होने से कुछ दिन पूर्व नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के नियम भी अधिसूचित कर दिए. इससे भाजपा को मतुआ समुदाय के वोट हासिल होने करने की उम्मीद है, जो बांग्लादेश से आए दलित हिंदू शरणार्थी हैं.

हालांकि, सीएए में मुस्लिम शरणार्थियों को शामिल नहीं करने से भाजपा का दांव उलटा पड़ सकता है, क्योंकि इससे 27 फीसद अहम मुस्लिम वोट टीएमसी के पक्ष में गोलबंद हो सकता है. भगवा दल के लिए एकमात्र उम्मीद यही है कि 'इंडिया' ब्लॉक में सीट बंटवारे पर सहमति न बन पाने से ममता की संभावनाओं को नुकसान पहुंचे, क्योंकि मुस्लिम वोट बंट सकता है.

उधर, 25 लोकसभा सीटों वाले आंध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडु की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एनडीए कुनबे में लौटने से उसकी सीटें बढ़ने के आसार हैं, खासकर तब जब अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना भी उसका हिस्सा है. राज्य में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव भी हैं, इसलिए एनडीए को जगन रेड्डी के नेतृत्व वाली वाईएसआरसीपी (युवजन श्रमिक रायतु कांग्रेस पार्टी) सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलने की उम्मीद है.

पार्टी की कोशिश है कि पिछली बार टीडीपी की जीती चार सीटों की तुलना में अधिक लोकसभा सीटें हासिल हो सकें और अधिकांश विधानसभा सीटें जीतकर राज्य में सरकार बनाने लायक बहुमत मिल सके.

हालांकि, पड़ोसी राज्य ओडिशा में सत्ता के करीब पहुंचने की भगवा खेमे की योजना सिरे नहीं चढ़ पाई. ओडिशा में भी लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव हो रहे हैं. लेकिन यहां पर मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के नेतृत्व में सत्तारूढ़ बीजद और भाजपा के बीच गठबंधन की कोशिश नाकाम हो गई. भाजपा ने 2019 में राज्य में 21 संसदीय सीटों में से आठ पर जीत हासिल की थी.

लेकिन विधानसभा चुनाव में उसे हार का सामना करना पड़ा जब बीजद ने 147 सीटों में से 112 सीटें जीतीं. भाजपा को सिर्फ 23 सीटों पर संतोष करना पड़ा. राज्य में बीजद के साथ गठबंधन न हो पाने की एक बड़ी वजह यह थी कि भाजपा बहुमत की स्थिति में सत्ता में भागीदारी चाहती थी लेकिन पटनायक इसके लिए तैयार नहीं थे.

पटनायक ने पुरी, भुवनेश्वर और केंद्रपाड़ा सीटों की भाजपा की मांग भी नहीं मानी. वहीं तमिलनाडु के लोकसभा चुनावों में हमेशा खाली हाथ रही भाजपा को उम्मीद थी कि इस बार राज्य में सत्तारूढ़ द्रमुक के मजबूत गठबंधन, जिसमें कांग्रेस भी शामिल है, में सेंध लगाने में सफल रहेगी.

लेकिन प्रमुख सहयोगी अन्नाद्रमुक ने राज्य में पार्टी से नाता तोड़ लिया क्योंकि भाजपा ने यहां अपने पार्टी अध्यक्ष और उभरते सितारे के. अन्नामलै के आक्रामक तेवरों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था. इस बीच, अन्नामलै ने हाल ही में अपनी करीब 10,000 किलोमीटर लंबी 'एन मन एन मक्कल' (मेरी भूमि, मेरे लोग) यात्रा पूरी की, जिसके समापन के मौके पर पीएम मोदी ने एक रैली को संबोधित किया.

भाजपा पूर्व में एनडीए में शामिल रहे अंबुमणि रामदॉस की अध्यक्षता वाले पट्टाली मक्कल काची (पीएमके) जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन कर रही है. इस बीच पार्टी ने पूर्व आईपीएस अधिकारी अन्नामलै को कोयंबटूर से, तेलंगाना में राज्यपाल रह चुकी तमिलसाई सुंदरराजन को चेन्नई दक्षिण और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी. राधाकृष्णन को कन्याकुमारी सीट से उम्मीदवार बनाया है.

Ram factor

इस साल 22 जनवरी को मोदी ने अयोध्या में बेहद तेज गति से निर्मित राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह का आयोजन कर हिंदू पुनरुत्थान और पुनर्स्थापना की दिशा में शानदार प्रदर्शन कर एक अलग मुकाम हासिल कर लिया. अयोध्या में सदियों पुराने संघर्ष को सुलझाने वाले 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राम मंदिर निर्माण से देश के बहुसंख्यक हिंदुओं में जबरदस्त भावनात्मक जुड़ाव उत्पन्न होने की उम्मीद है.

मोदी की निगहबानी में काशी विश्वनाथ मंदिर को मिले भव्य स्वरूप के साथ सांस्कृतिक पुनर्जागरण के प्रतीक बने इस घटनाक्रम के बारे में सत्तारूढ़ भाजपा और उसके वैचारिक संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की राय यही रही है कि देश में पार्टी का शासन बरकरार रखने के लिए यह जरूरी था. नवनिर्मित राम मंदिर में भव्य समारोह के आयोजन से बने माहौल को बरकरार रखने के लिए भाजपा 'अयोध्या दर्शन' का आयोजन भी कर रही है.

इसके तहत प्रति दिन 20-25 निर्वाचन क्षेत्रों के 5,000 तीर्थयात्रियों को सम्मानित किया जाता है और उन्हें 5,000 अन्य परिवारों के लिए प्रसाद ले जाने को प्रेरित किया जाता है. पहले चरण के मतदान से दो दिन पूर्व 17 अप्रैल को रामनवमी के मौके पर मोदी राम मंदिर में पूजा के लिए अयोध्या जा सकते हैं. इस तरह धार्मिक भावनाओं को उभारना भाजपा के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है.

मंदिर की राजनीति को भुनाने के अलावा, भाजपा ने हाल में उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता अमल में लाकर, सीएए संबंधी नियम अधिसूचित करके और अपने दूसरे कार्यकाल के शुरू में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 खत्म करके भी अपने मूल जनाधार की भावनाओं को संतुष्ट कर दिया है. संघ परिवार के एजेंडे में शामिल रही ये प्रमुख मांगें पूरी करके मोदी ने हिंदुत्व समर्थकों के बीच अपनी दमदार छवि बना ली है. इसके जरिए उन्होंने खुद को वादे पूरे करने वाले नेता के तौर पर स्थापित कर लिया है.

हालांकि, एक्सिस माई इंडिया के संस्थापक और जाने-माने चुनाव विश्लेषक प्रदीप गुप्ता मानते हैं कि राम मंदिर मुद्दे का सबसे अधिक चुनावी असर उत्तर प्रदेश में ही नजर आएगा, जहां सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीटें हैं. 2019 में भाजपा ने इनमें  62 पर जीत हासिल की थी और दो सीटें उसके सहयोगी दलों के खाते में आई थीं.

पार्टी जीतने से चूकी बाकी 16 सीटों को अपने 400 पार के लक्ष्य के लिए बेहद अहम मान रही है. पार्टी का दावा है कि मंदिर निर्माण के लिए आरएसएस के कार्यकर्ता 10 करोड़ घरों तक पहुंचे. 

भाजपा इस बार राज्य में क्लीन स्वीप करना चाहती है. पार्टी ने तमाम जातिगत समीकरणों को साधने के लिए विभिन्न छोटे दलों को एनडीए का हिस्सा बनाया है. इसी क्रम में पुराने सहयोगियों निषाद पार्टी और अपना दल (सोनेलाल) को समायोजित करने के अलावा यूपी के जाट किसानों के बीच खासा प्रभाव रखने वाले जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और पूर्वी यूपी में कुछ सबसे पिछड़े और दलित समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाले ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) को वापसी के लिए लुभाया गया.

न केवल यूपी बल्कि अन्य राज्यों में भी गठबंधन पर भाजपा की रणनीति का जिक्र करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री शाह ने इस साल इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में कहा था, "गठबंधन सिर्फ गणित से जुड़ा नहीं है, इसमें केमिस्ट्री और फिजिक्स भी होती है. राजनीति में एक और एक दो नहीं होते, बल्कि 11 बन सकते हैं." गृह मंत्री का विपक्ष के बारे में कहना था कि अगर स्थिति खराब हो तो यह शून्य भी हो सकता है.

अलबत्ता, हिंदुत्व कार्ड भुनाने के बावजूद अति-महत्वाकांक्षा के साथ भाजपा देशव्यापी जाति जनगणना की मांग ठुकराने में पूरी सतर्कता बरत रही है. मोदी बार-बार अपने भाषणों में कहते हैं कि उनके लिए केवल चार जातियां गरीब, युवा, महिला और किसान ही मायने रखती हैं और दोहराते हैं कि कैसे उनकी सरकार समाज के विभिन्न वर्गों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चला रही है. दरअसल, भाजपा ने बड़ी चतुराई के साथ अलग ही लाभार्थी वर्ग तैयार किया है, जो अब एक बड़ा वोट बैंक बन चुका है.

और भाजपा को उम्मीद है कि इसका वोट भारी बहुमत के साथ उसकी वापसी तय करने में महत्वपूर्ण साबित होगा. अपना संदेश घर-घर पहुंचाने के उद्देश्य से भाजपा पिछले छह महीनों के दौरान कम से कम तीन बार मोदी सरकार की सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं से जुड़ी जानकारी 48 करोड़ लाभार्थियों तक पहुंचाने के लिए अपने जमीनी स्तर के शक्ति केंद्रों का इस्तेमाल कर चुकी है, जिनका संचालन पार्टी के पूर्णकालिक कार्यकर्ता करते हैं.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "अधिकांश लाभार्थी पिछड़े समुदायों ओबीसी या दलित तबके से आते हैं." पार्टी के विधायकों, सांसदों और पदाधिकारियों के साथ बातचीत के दौरान मोदी उन्हें अपने निर्वाचन क्षेत्रों में इन योजनाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कहते हैं.

Modi's guarantee

वैसे, विशेषज्ञों की मानें तो भाजपा के लिए सबसे बड़ा तुरुप का इक्का नरेंद्र मोदी ही हैं. मजबूत नेता वाली उनकी छवि, विकसित भारत का नजरिया और बेशुमार लोकप्रियता ऐसे प्रमुख फैक्टर हैं, जो यह तय करेंगे कि इस बार गर्मियों में पार्टी नया चुनावी इतिहास रचेगी या नहीं.

जाने-माने सियासी रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं, "लोग ब्रांड मोदी के लिए वोट करते हैं. उन्हें न सिर्फ हिंदू हृदय सम्राट माना जाता है, बल्कि ऐसे व्यक्ति के तौर पर भी देखा जाता है जो राष्ट्रीय गौरव जागृत करता है, जिसने विदेश नीति के मोर्चे पर गौरव बढ़ाया है और जो कल्याण योजनाओं से गरीबों की भलाई करने में जुटा है."

उनके मुताबिक, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और विशाल लाभार्थी वर्ग के अलावा उत्साहित काडर ब्रांड मोदी के आधार हैं. प्रदीप गुप्ता भी यही मानते हैं कि अब मोदी ही भाजपा का भविष्य तय करेंगे. वे कहते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के वक्त भी, "भाजपा 182 सीटें हासिल कर सकी थी. मोदी ने भाजपा को लगातार दो बार बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचाया. भाजपा को तीसरी बार बड़ी जीत हासिल करनी है तो वे महत्वपूर्ण फैक्टर बने रहेंगे. मोदी के बिना भाजपा 182 सीटों पर सिमट जाएगी."

पहले की तरह आम चुनाव 2024 में भी वे ही प्रमुख प्रचारक होंगे. अब तक, उन्होंने हिंदुत्व और विकास के बीच रणनीतिक संतुलन बनाकर रखा है. 2047 में विकसित भारत के लक्ष्य का कार्ड चलकर प्रधानमंत्री ने चतुराई से इन चुनावों को तात्कालिक मुद्दों तक सीमित होने से बचा लिया है, इसके बजाए वे ऐसे भविष्य की बात कर रहे हैं जिसकी 'गारंटी' सिर्फ वे ही दे सकते हैं. उन्होंने आम चुनाव को एक बार फिर अमेरिकी राष्ट्रपति जैसी प्रतिस्पर्धा में बदल दिया है, जिसमें मतदाता उनके ट्रैक रिकॉर्ड की तुलना उनके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी राहुल गांधी से कर रहे हैं.

जिनके पास सरकार चलाने का कोई अनुभव तक नहीं है. सोरेन और केजरीवाल की गिरफ्तारी और कई अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज होने को भाजपा मोदी के भ्रष्टाचार मुक्त शासन के तौर पर भुनाने में लगी है. बेशक, चुनावी बॉन्ड को लेकर मचा हंगामा जरूर बाधा बन सकता है. हालांकि, विपक्ष अब तक इस मुद्दे को अपने पक्ष में भुनाने में नाकाम रहा है. यही नहीं, वह भाजपा के बढ़ते दबदबे को चुनौती देने की कोई ठोस जवाबी रणनीति भी नहीं बना पाया है. 

वैसे देखा जाए तो विपक्ष के पास मोदी और भाजपा को घेरने के लिए बड़े पैमाने पर सियासी गोला-बारूद मौजूद है. बेरोजगारी और महंगाई गंभीर मुद्दा बनी हुई है, जो फरवरी 2024 के इंडिया टुडे देश का मिजाज सर्वे में साफ जाहिर हुआ था. विपक्ष ने गरीबों और जरूरतमंदों के लिए कल्याणकारी योजनाओं की गारंटी की पेशकश की है. कांग्रेस भी 25 ऐसी गारंटी का वादा कर रही है, जिसमें महिलाओं को प्रति वर्ष एक लाख रुपए और सभी प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देना शामिल है.

देखना है कि विपक्ष के वादे 'मोदी की गारंटी' के खिलाफ कितने कारगर साबित होंगे. दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर स्वदेश सिंह कहते हैं, "अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में नहीं है, लेकिन भाजपा और मोदी कोई भी आइडिया बेच सकते हैं जिसे इसका समाधान मानते हों." वैसे, चुनावी नतीजे का अंदाजा लगाना संभव नहीं है, भाजपा और सहयोगी दलों को 400 पार का लक्ष्य हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी. वोट पड़ने और नतीजे सामने आने से पहले कोई भी गारंटी बेमानी है.